Thursday, 1 July 2021

माँ

पैसों का संकट जब घर पर आया था
माँ ने हाँथ आहते पर रखे डब्बे  की और बढ़ाया था
चुन चुन कर कुछ पैसे जमा किये थे उसने
पैसों को निकाल उसे बापू के हाथ थमाया था

एक बार घर पर खाने को एक रोटी ही बची थी
उसे भी बापू और मुझमे आधी-आधी बाट कर
खुद पानी पी भूखे पेट वो सोने चली थी

मेरे स्कूल से खत लेकर कोई घर आया था
लिखा खत में मेरे स्कूल का फ़ीस बकाया था
अपनी पायजेब को गिरवी रख उसने उसे पटाया था

दीवाली के दिन उसने पुरानी साड़ी पहनी
पर मुझे नई कमीज दिलवायी थी
खाने को उसने केवल खीर ही बनाई थी

झोला पकड़ माँ रोज कही जाती थी
एक रोज में भी उसके पीछे-पीछे हो चला
देखा वो घर का बोझ उठाने झुटे बर्तन मांजने जाती है

मैं उसे देख कर रोता रोता सोचता हुआ घर को दौड़ा
की न जाने माँ को इतनी शक्ति कँहा से मिलती है
सारे दुःख झेल कर भी माँ मुस्कुराते हुए चलती है

जब सांझ को माँ घर लौटीं उसे पकड़ कर रोता रहा
माँ से पूछा माँ तू ये सब कैसे कर पाती है
तू हमे निवाला दे ख़ुद भूखे सो जाती है

तू खुद मैली साड़ी में पर मुझे नई कमीज दिलाती है
तू सहारा देने हमे झुटे बर्तन मांजने जाती है
माँ तू ये सब कैसे कर पाती है

माँ का मुख भी निरुत्तर था
माँ के आँखों मे आँसू था
माँ का चेहरा सुख से

मैन माँ से फिर पूछा
माँ हमे ये गरीबी क्यो तरसती हैं
हमारे ऊपर उस निष्ठुर नियन्ता को दया क्यो नही आती हैं

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